लफ्ज़ कुछ बिखरे हुए
पड़े हैं सारे कमरे में
नज़्म कुछ अधूरी सी
तार तार जिंदा है
तुम्हारी सलाइयाँ अब भी
फंसी हैं अधूरे स्वेटर में
इस रास्ते गुज़रो कभी
तो बुन जाना
लफ्ज़ कुछ फंसे हैं
पन्नों के हाशिये में
कुछ घर के हर सामान से
चिपके हुए हैं
कुछ मेरे तकिये के नीचे
छुप के साँस लेते हैं
हर रात सिसकते हैं
सोने नही देते
कुछ दबे हैं उस गिलास
के टुकडों के तले
गुस्से में आकर जो
मैंने फैंका था
लफ्ज़ वो चीखते
तो हैं लेकिन
टुकडों की खनक में
दब जाते हैं
जब से घर बदला है
मेरे घर का हर सामन
मेरी ज़िन्दगी सा ही
कहीं बिखरा पड़ा है
इस रास्ते गुज़रो कभी
तो सहेज जाना
5 comments:
subhaan allah!
gopal bhai,
padhne ke baad dubara padhna pada, kyuki pahli baar me aisa laga ki ye kavita bahut kuch kah rahi hai.
U know how this one sounds like? If I talk in "our" comparision language this one evokes the same feelings(in the same depth) as "mera kuch samaan tumhare paas pada hai...."
awesome dear.
mazza hee aa gaya
very deep poem.
cheers!
This looks like pretty good stuff. I found your blog by chance and would be following it in future. Keep writing!!
Gopal..u r amazing..tumhe shabdo ko pirona aata hai...I have tears in my eyes..wht else i can say..This is brilliant......Hats off 2 u!
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