Friday, October 10, 2008

डरता तो हूँ मैं
इसका एहसास तो है
पर माना नही
कभी किसी के सामने

शायद इसमे भी इक
डर ही मेरा छुपा हुआ है
और भी गहरा
दूर जड़ों तक घुसा हुआ

डरता था हर बार मैं
पापा के थप्पड़ से
मास्टरजी की छड़ी के आगे
याद पहाडा भूल गया

कुछ इस डर का इस्तेमाल भी
किया था मैंने गुड्डी पर
डरा डरा कर उससे अपने
काम कराया करता था

पूजा की थाली से जब
एक अठन्नी चुरा के मैं
फुचके खाता पकड़ा गया था
बहुत डराया दादी ने तब

मन्दिर के आगे वाले उस
कोढ़ी को दिखा के बोली
"जानते हो इसने
ठाकुरजी का घंटा चुराया था "

वो डर आज भी मेरे
ज़हन मे जिंदा है
डरता हूँ खुदा से
शैतान से भी

क्योंकि कल मन्दिर में ही
एक धमाका हुआ था
और सुबह से मेरे सामने
वाली कुर्सी खाली है

वो खाली कुर्सी देखकर
बार-बार सहम जाता हूँ
डरता तो हूँ मैं
बस बताता नहीं किसी को

Sunday, October 05, 2008

कीमत तेरी बड़ी वहां पर, यहाँ न कोई दे पाए
बड़ा हिसाबी हुआ है तू तो, ये भी हिसाब लगा जाना

बुरी नज़र से तुझे बचाने, लगा दिया था माँ ने जो
काजल के उस टीके की भी, कीमत ज़रा लगा जाना

माली की नज़रों से बचकर, खाए तो चुपके से
चोरी के उन अमरूदों की कीमत ज़रा चुका जाना

माँ के लाख मना करने पर, भी खा ली थी जो छुपके
जाते जाते उस मिटटी की कीमत ज़रा चुका जाना.....
लफ्ज़ कुछ बिखरे हुए
पड़े हैं सारे कमरे में
नज़्म कुछ अधूरी सी
तार तार जिंदा है
तुम्हारी सलाइयाँ अब भी
फंसी हैं अधूरे स्वेटर में
इस रास्ते गुज़रो कभी
तो बुन जाना

लफ्ज़ कुछ फंसे हैं
पन्नों के हाशिये में
कुछ घर के हर सामान से
चिपके हुए हैं
कुछ मेरे तकिये के नीचे
छुप के साँस लेते हैं
हर रात सिसकते हैं
सोने नही देते

कुछ दबे हैं उस गिलास
के टुकडों के तले
गुस्से में आकर जो
मैंने फैंका था
लफ्ज़ वो चीखते
तो हैं लेकिन
टुकडों की खनक में
दब जाते हैं

जब से घर बदला है
मेरे घर का हर सामन
मेरी ज़िन्दगी सा ही
कहीं बिखरा पड़ा है
इस रास्ते गुज़रो कभी
तो सहेज जाना
रेत का घरौंदा है बिखरने के लिए,
जानकर भी घरौंदा ये क्यों बनाया है
कहीं आँखों के खारे पानी पर
समंदर को तरस भी कभी आया है !

बैठा हूँ दरिया के किनारे लेकिन
जकड के पैरों से दो बालिश्त ज़मीं
हर लहर थोडी रेत छीन जाती है
पैरों तले ज़मीं को खोखला करके



जितनी ज़ोर से ज़मीं को पकड़ना चाहा
उतनी ही हुई खोखली बुनियाद मेरी