Saturday, January 29, 2011

थिएटर की सीट पे हम दोनों बैठे थे
और बीच में बस इक armrest की दूरी थी

मैं इस पार से तुम्हे देखता रहा जी भर
दो-इक बार तुम्हे छूने की कोशिश भी की

तुमने हँस के armrest उठा दिया था
बोली "बड़े बुद्धू हो तुम भी "

आज लगता है सच ही कहा था तुमने

Sunday, January 16, 2011

मैं इक साहिल पे बैठा हूँ

ना इतना दूर कि कोई लहर मुझको
छू ही ना पाए
ना इतना पास ही कि हर लहर
भिगा सके मुझको

मैं कुछ पिछली लहर से अब भी
भीगा सा ही बैठा हूँ
भली लगती है अब हवाओं कि
संगत बड़ी मुझको

यूं भीगते और सूखते
दिन ढल गया देखो