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Sunday, April 12, 2009

कई दिनों से इक सीपी सिरहाने ही रक्खा है
कातर हाथ सहम जाते हैं तोड़ने की बात पर

मेरे मोती का सपना न चुरा ले कोई...

Sunday, April 05, 2009

बड़ी ही स्याह सी तस्वीर बनी है तेरी
डूबा के ब्रश ज़रा सी धूप मे कुछ रौशनी भर दो ...

Tuesday, November 25, 2008

लकीरें

हाथों पे ये किस्मत हैं, सरहद पे हैं जंजीरें
बन जाती हैं कलम से, मिटती नहीं लकीरें

मुद्दई बने हैं भाई, बरसों के तोड़ रिश्ते
क्या क्या हैं इसके जलवे, जादू की ये लकीरें

अपने ही घर मे कैद हम, साँसों को तरसते हैं
अपनों से ये चेहरे हैं, मगर बीच में लकीरें

ऐ क़यामत गिरा दे घर की, इस चारदीवारी को
राहत मिले घुटन से, दब जायें ये लकीरें

मिटटी की ये लकीरें, पत्थर न हमको कर दें
बारिश करा दे मौला धुल जायें ये लकीरें

Friday, October 10, 2008

डरता तो हूँ मैं
इसका एहसास तो है
पर माना नही
कभी किसी के सामने

शायद इसमे भी इक
डर ही मेरा छुपा हुआ है
और भी गहरा
दूर जड़ों तक घुसा हुआ

डरता था हर बार मैं
पापा के थप्पड़ से
मास्टरजी की छड़ी के आगे
याद पहाडा भूल गया

कुछ इस डर का इस्तेमाल भी
किया था मैंने गुड्डी पर
डरा डरा कर उससे अपने
काम कराया करता था

पूजा की थाली से जब
एक अठन्नी चुरा के मैं
फुचके खाता पकड़ा गया था
बहुत डराया दादी ने तब

मन्दिर के आगे वाले उस
कोढ़ी को दिखा के बोली
"जानते हो इसने
ठाकुरजी का घंटा चुराया था "

वो डर आज भी मेरे
ज़हन मे जिंदा है
डरता हूँ खुदा से
शैतान से भी

क्योंकि कल मन्दिर में ही
एक धमाका हुआ था
और सुबह से मेरे सामने
वाली कुर्सी खाली है

वो खाली कुर्सी देखकर
बार-बार सहम जाता हूँ
डरता तो हूँ मैं
बस बताता नहीं किसी को

Sunday, October 05, 2008

कीमत तेरी बड़ी वहां पर, यहाँ न कोई दे पाए
बड़ा हिसाबी हुआ है तू तो, ये भी हिसाब लगा जाना

बुरी नज़र से तुझे बचाने, लगा दिया था माँ ने जो
काजल के उस टीके की भी, कीमत ज़रा लगा जाना

माली की नज़रों से बचकर, खाए तो चुपके से
चोरी के उन अमरूदों की कीमत ज़रा चुका जाना

माँ के लाख मना करने पर, भी खा ली थी जो छुपके
जाते जाते उस मिटटी की कीमत ज़रा चुका जाना.....
लफ्ज़ कुछ बिखरे हुए
पड़े हैं सारे कमरे में
नज़्म कुछ अधूरी सी
तार तार जिंदा है
तुम्हारी सलाइयाँ अब भी
फंसी हैं अधूरे स्वेटर में
इस रास्ते गुज़रो कभी
तो बुन जाना

लफ्ज़ कुछ फंसे हैं
पन्नों के हाशिये में
कुछ घर के हर सामान से
चिपके हुए हैं
कुछ मेरे तकिये के नीचे
छुप के साँस लेते हैं
हर रात सिसकते हैं
सोने नही देते

कुछ दबे हैं उस गिलास
के टुकडों के तले
गुस्से में आकर जो
मैंने फैंका था
लफ्ज़ वो चीखते
तो हैं लेकिन
टुकडों की खनक में
दब जाते हैं

जब से घर बदला है
मेरे घर का हर सामन
मेरी ज़िन्दगी सा ही
कहीं बिखरा पड़ा है
इस रास्ते गुज़रो कभी
तो सहेज जाना
रेत का घरौंदा है बिखरने के लिए,
जानकर भी घरौंदा ये क्यों बनाया है
कहीं आँखों के खारे पानी पर
समंदर को तरस भी कभी आया है !

बैठा हूँ दरिया के किनारे लेकिन
जकड के पैरों से दो बालिश्त ज़मीं
हर लहर थोडी रेत छीन जाती है
पैरों तले ज़मीं को खोखला करके



जितनी ज़ोर से ज़मीं को पकड़ना चाहा
उतनी ही हुई खोखली बुनियाद मेरी

Tuesday, June 03, 2008

मरने की ख्वाहिश जो हुई हमको
ढूँढने निकले कि ज़िंदगी क्या है

मरने की आरजू मे जीते चले गए ..............


आज लगता है मिल गयी है तेरे
आंसुओं के नमक मे ज़िंदगी मुझको

Monday, May 05, 2008

कुछ तल्खियां छुपी थीं, बातों मे उनकी शायद

हम समझ ही न पाए, और बात बढ़ गयी।

इन फासलों ने मुझको, पत्थर सा कर दिया है

कहते हैं लोग मुझसे, बड़ा तल्ख़ बोलते हो।

Saturday, March 15, 2008

रिश्ता

उसको कुछ दूर तक,
निहारती
आँखों की नमी ने
बताया मुझको।
कि उस चेहरे से, इन आँखों का
रिश्ता क्या है .............

संक्रान्ति

संक्रान्ति : परिवर्तन की बेला,

ज्यों पौ फटी हो।

सुबह- सुबह, गंगा घाट को,

जाती हुई वो;

ठेले पे पति की की लाश को

लादे हुए।

बिखरे बाल, मानो बदहवास ; पर

आंखें सूखी;

आंसुओं को बहने का शायद

वक्त ना मिला।

साथ इक बच्ची भी है

तीन साल की;

समझ नही पाती है बिल्कुल

माँ की पीड़ा।

माँ के मुख को देख कर कुछ

बोलती नही;

पर आंखों मे इक चमक सी है

कुछ पूछती हुई;

आएगी कभी क्या जीवन में,

मेरे भी संक्रान्ति !

Monday, January 21, 2008

माना था खुदा जिनको हमने, अपनी ज़िंदगी का ;
बुत वो हैं बन गए और, हमको बनाया काफिर।

Monday, November 06, 2006

कल शाम रस्ते पे देखा, कुछ मैला सा कनवास;
रेशा - रेशा, ज्यों लम्हा- लम्हा, बुना हुआ करीने से।
रंगों के बीच की दरारें, भेद सारी सिल्वटों के।
दिल की कश्मकश उभर आयी है इन सिल्वटों में।

फेंका होगा आवेश में, उन्ही हाथों ने
जिनमे थमी कूची ने भरा था रंगों से इसे।
.... कुछ सुर्ख, ... तो कुछ स्याह.......

कोरों पे लगी कालिख़,
कुछ सालती है क्योंकर
दिन रात ये जपते हो
तमसो मा ज्योतिर्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय

Saturday, November 04, 2006

dhoop ayegi

सर्दी की एक सुबह
वीरान सूनी सड़कें
फुटपाथ पर ठंड से सिहरती
इक निर्बल सी काया

अख़बार के टुकडों को
लपेट कर
ठंड से बचने की
नाकाम कोशिश कर रही
खुद को दिलासा देती है।

सूर्योदय के इंतज़ार में
आसमान पर टिकी निगाहें
इक पल को चली जाती
गगनचुम्बी अट्टालिकाओं पर

महलों कि खिड़कियाँ
हमारे लिए बंद सही
पर सूर्य !!!
उसकी रौशनी तो
मेरे लिए भी है
मेरे लिए भी......

इसी इंतजार में पथराई निगाहें
एकटक देखतीं आसमां को
कभी तो सूर्य उगेगा
सवेरा होगा
धूप आएगी
धूप आयेगी..............