हर दशहरे पे मैंने
रावण को जलते देखा है
फ़िर भी मरता ही नहीं
तुम्हारा रूप धरे कोई
बस आग लगा जाता है
कभी आओ तुम भी
रावण को जलाने के लिए...
तुम्हारे नाम पे अक्सर
मिठाई खूब खाई है
तुम्हे जो भोग लगाया
कभी चखा ही नहीं
आज तुम्हे सच मे
खिलाने को जी करता है
कभी आओ मेरे घर
मक्के कि रोटी खाने ...
तुम्हारी अयोध्या का
हाल बाकी अच्छा है
अगले इलेक्शन को
वक्त बाकी है अभी
दो बार तुम्हारे घर को
भक्तों ने तुम्हारे तोडा
बेघर हुए हैं ठाकुर
आज परजा कि तरह
धूप मे बारिश मे भी
चुप - चाप खड़े रहते हो
आ जाओ ज़रा
हाई कोर्ट गवाही देने
ये मसला सुलझ
जाए कि तुम हो
मुझको भी यकीं
आए कि तुम हो
2 comments:
the most awaited poem.
i was waiting for it.
an excellent piece.
Very very nice...ye mujhko samajh bhi aa gaya :)
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