Friday, April 17, 2009

राम तुम हो कि नहीं

हर दशहरे पे मैंने
रावण को जलते देखा है
फ़िर भी मरता ही नहीं

तुम्हारा रूप धरे कोई
बस आग लगा जाता है
कभी आओ तुम भी
रावण को जलाने के लिए...

तुम्हारे नाम पे अक्सर
मिठाई खूब खाई है
तुम्हे जो भोग लगाया
कभी चखा ही नहीं

आज तुम्हे सच मे
खिलाने को जी करता है
कभी आओ मेरे घर
मक्के कि रोटी खाने ...

तुम्हारी अयोध्या का
हाल बाकी अच्छा है
अगले इलेक्शन को
वक्त बाकी है अभी

दो बार तुम्हारे घर को
भक्तों ने तुम्हारे तोडा
बेघर हुए हैं ठाकुर
आज परजा कि तरह

धूप मे बारिश मे भी
चुप - चाप खड़े रहते हो
आ जाओ ज़रा
हाई कोर्ट गवाही देने

ये मसला सुलझ
जाए कि तुम हो
मुझको भी यकीं
आए कि तुम हो

2 comments:

jasdeep mandia said...

the most awaited poem.
i was waiting for it.
an excellent piece.

Robin said...

Very very nice...ye mujhko samajh bhi aa gaya :)