हाथों पे ये किस्मत हैं, सरहद पे हैं जंजीरें
बन जाती हैं कलम से, मिटती नहीं लकीरें
मुद्दई बने हैं भाई, बरसों के तोड़ रिश्ते
क्या क्या हैं इसके जलवे, जादू की ये लकीरें
अपने ही घर मे कैद हम, साँसों को तरसते हैं
अपनों से ये चेहरे हैं, मगर बीच में लकीरें
ऐ क़यामत गिरा दे घर की, इस चारदीवारी को
राहत मिले घुटन से, दब जायें ये लकीरें
मिटटी की ये लकीरें, पत्थर न हमको कर दें
बारिश करा दे मौला धुल जायें ये लकीरें
6 comments:
the last two lines are so goood!!! baarish girade maula....mit jaye ye lakeere....world wud b such a beautiful place to live in without these boundaries.Tu accha likhta hai yaar!!!thoda zada likha kar na....
thanks manisha....
Tum kehte ho ki yahan jo kuch bhi likha hai..thats not your life...but some times its difficult to imagine that. The vividness of pain is so clear, so naked that mujhe kabhi kabhi lagta hai jaise har word mera dum ghont dega..its that kind of painful....
shandaar
gopal bhai !
mujhe 'maya' ki baat sahi lag rahi hai
:)
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