संक्रान्ति : परिवर्तन की बेला,
ज्यों पौ फटी हो।
सुबह- सुबह, गंगा घाट को,
जाती हुई वो;
ठेले पे पति की की लाश को
लादे हुए।
बिखरे बाल, मानो बदहवास ; पर
आंखें सूखी;
आंसुओं को बहने का शायद
वक्त ना मिला।
साथ इक बच्ची भी है
तीन साल की;
समझ नही पाती है बिल्कुल
माँ की पीड़ा।
माँ के मुख को देख कर कुछ
बोलती नही;
पर आंखों मे इक चमक सी है
कुछ पूछती हुई;
आएगी कभी क्या जीवन में,
मेरे भी संक्रान्ति !
2 comments:
Very beautifully written... simple.. but still it has the power to make one visualize the whole scene ... and feel the emotions... really nice :-)
it sounds prophetic,
but indeed, sankraanti aayegi... lekin tabhi aayegi jab
buri paristhitiyo ko(which undeniably were responsible) dosh dene ke bajaye ...
she looks beyond, she thinks about what next, what can I do, other than, 'just' accepting what seems impending.
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