कल शाम रस्ते पे देखा, कुछ मैला सा कनवास;
रेशा - रेशा, ज्यों लम्हा- लम्हा, बुना हुआ करीने से।
रंगों के बीच की दरारें, भेद सारी सिल्वटों के।
दिल की कश्मकश उभर आयी है इन सिल्वटों में।
फेंका होगा आवेश में, उन्ही हाथों ने
जिनमे थमी कूची ने भरा था रंगों से इसे।
.... कुछ सुर्ख, ... तो कुछ स्याह.......
कोरों पे लगी कालिख़,
कुछ सालती है क्योंकर
दिन रात ये जपते हो
तमसो मा ज्योतिर्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
2 comments:
As commented earlier...ur a wonderful writer :)A keen eye and heart touching words. Keep it up and I hope to see more posts :)
Marmik hai...very touchy!
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