सर्दी की एक सुबह
वीरान सूनी सड़कें
फुटपाथ पर ठंड से सिहरती
इक निर्बल सी काया
अख़बार के टुकडों को
लपेट कर
ठंड से बचने की
नाकाम कोशिश कर रही
खुद को दिलासा देती है।
सूर्योदय के इंतज़ार में
आसमान पर टिकी निगाहें
इक पल को चली जाती
गगनचुम्बी अट्टालिकाओं पर
महलों कि खिड़कियाँ
हमारे लिए बंद सही
पर सूर्य !!!
उसकी रौशनी तो
मेरे लिए भी है
मेरे लिए भी......
इसी इंतजार में पथराई निगाहें
एकटक देखतीं आसमां को
कभी तो सूर्य उगेगा
सवेरा होगा
धूप आएगी
धूप आयेगी..............
5 comments:
this was inspired by a real scene while cycling to school
awesome poem
very well written
infact very beautifully written.
rongte khade ho gaye mere padhte huye,- can't say more.
u were in 9th i guess when u wrote this poem. right?
too gd yaar.
thanks jassi !!!
btw i was in 11th then....
bahut touching hai...painful and like a raw wound...
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