संक्रान्ति : परिवर्तन की बेला,
ज्यों पौ फटी हो।
सुबह- सुबह, गंगा घाट को,
जाती हुई वो;
ठेले पे पति की की लाश को
लादे हुए।
बिखरे बाल, मानो बदहवास ; पर
आंखें सूखी;
आंसुओं को बहने का शायद
वक्त ना मिला।
साथ इक बच्ची भी है
तीन साल की;
समझ नही पाती है बिल्कुल
माँ की पीड़ा।
माँ के मुख को देख कर कुछ
बोलती नही;
पर आंखों मे इक चमक सी है
कुछ पूछती हुई;
आएगी कभी क्या जीवन में,
मेरे भी संक्रान्ति !